भारतीय महाकाव्य महाभारत अनेक गूढ़ और शिक्षाप्रद कथाओं से भरा हुआ है, जिनमें से एक है – *राजा ययाति और उनके पुत्र पुरु की कथा*। यह केवल एक पारिवारिक प्रसंग नहीं, बल्कि इच्छाओं, त्याग और धर्म के गहरे स्तरों को छूने वाली कहानी है, जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी सहस्राब्दियों पहले थी।
कथा का प्रारंभ: ययाति का यौवनमोह
ययाति चंद्रावंशी राजा नहुष के पुत्र थे और एक शक्तिशाली तथा धर्मनिष्ठ राजा माने जाते थे। उन्होंने दैत्य राज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा तथा गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से विवाह किया था। देवयानी से विवाह करने के बाद भी ययाति ने शर्मिष्ठा से संबंध बनाए, जो देवयानी को स्वीकार्य नहीं था।
देवयानी ने यह अपमान सहन नहीं किया और अपने पिता शुक्राचार्य से शिकायत की। शुक्राचार्य, जो एक महान तपस्वी और दिव्य ज्ञान के स्वामी थे, क्रोधित होकर ययाति को “वृद्ध होने का शाप” दे देते हैं। एक शक्तिशाली और युवा राजा के लिए वृद्धावस्था एक अभिशाप थी, विशेषकर जब वह अभी तक भोग विलास और सांसारिक इच्छाओं से पूर्णतः तृप्त नहीं हुआ था।
ययाति की याचना: यौवन उधार देने की अनोखी प्रार्थना
शुक्राचार्य के शाप से पीड़ित ययाति को तब यह वरदान मिलता है कि यदि कोई अन्य व्यक्ति स्वेच्छा से अपना यौवन उन्हें दे दे, तो वह उसे प्राप्त कर सकते हैं। ययाति ने तब अपने पाँचों पुत्रों – यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु, अनु और पुरु – से एक-एक करके अनुरोध किया कि वे अपना यौवन उन्हें दें ताकि वे अपनी अपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट कर सकें।
यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु – ये चारों पुत्र अपने यौवन का त्याग करने को तैयार नहीं हुए। तब ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु से आग्रह किया। और यहीं से इस कथा का सबसे उज्ज्वल पक्ष प्रकट होता है।
पुरु का त्याग: धर्म और कर्तव्य का प्रतीक
पुरु ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपना यौवन अपने पिता को दे दिया और स्वयं वृद्धावस्था स्वीकार कर ली। यह केवल एक पुत्र का अपने पिता के प्रति प्रेम नहीं था, बल्कि यह कर्तव्यबोध और आत्मनिग्रह की पराकाष्ठा थी। यह कार्य पुरु के महान चरित्र का प्रतीक है, जिसने स्वयं को राष्ट्र, कुल और धर्म की सेवा में समर्पित कर दिया।ययाति ने फिर वर्षों तक यौवन भोग किया और अंततः यह समझा कि इच्छाएं कभी समाप्त नहीं होतीं। उन्होंने कहा:
“त्रिष्णा न जीर्णा वयमेति जीर्णा”अर्थात — इच्छा कभी वृद्ध नहीं होती, केवल शरीर वृद्ध होता है।
यह अनुभूति ही ययाति के आत्मबोध का चरम थी। उन्होंने अपना यौवन पुरु को लौटा दिया और तपस्या के लिए वन गमन किया।
पुरु को मिला उत्तराधिकार: एक नए युग की शुरुआत
ययाति ने अपने अन्य पुत्रों को राज्य से बाहर भेज दिया और राज्य का उत्तराधिकार पुरु को सौंपा। यह न केवल एक इनाम था, बल्कि यह संकेत भी था कि त्याग ही सच्चे नेतृत्व की नींव है। यही कारण है कि पुरु के वंश को “पुरुवंश” कहा गया और यही वंश आगे चलकर कुरुवंश और अंततः कौरवों और पांडवों तक पहुँचा।
कथा का सार और आज की प्रासंगिकता
इस कथा में कई गूढ़ संदेश छिपे हैं:
इच्छाओं की अपारता – ययाति की तरह हम सब इच्छाओं के पीछे भागते हैं, परंतु तृप्ति बाहर नहीं, भीतर है।
कर्तव्य का महत्व – पुरु ने अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को सर्वोपरि माना।
त्याग ही सच्ची विरासत है – भोग नहीं, बल्कि त्याग और सेवा के कारण ही पुरु को गौरव और उत्तराधिकार प्राप्त हुआ।
योग्य नेतृत्व का आधार – एक सच्चा राजा वही होता है जो स्वयं को सबसे पहले राष्ट्र और धर्म के प्रति समर्पित करता है।
उपसंहार
महाभारत की यह कथा केवल एक ऐतिहासिक प्रसंग नहीं, बल्कि एक मानव-धर्म का जीवंत पाठ है। आज जब भोग और व्यक्तिगत इच्छाओं की प्रधानता है, तब ययाति और पुरु की कथा हमें यह याद दिलाती है कि वास्तविक सफलता त्याग, संयम और सेवा में निहित है। यही भारतीय संस्कृति की आत्मा है – जहां यौवन की चकाचौंध से अधिक मूल्य त्याग के तप में है।